गुरुवार, 22 सितंबर 2022

संस्कृत विद्वान पद्मश्री आचार्य रामायण शुक्ल का निधन

 पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित, संस्कृत विद्वान और काशी विद्वत परिषद के पूर्व अध्यक्ष आचार्य राम यत्ना शुक्ला का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। संस्कृत व्याकरण और वेदांत शिक्षण और आधुनिकीकरण के नए तरीकों का आविष्कार करने की दिशा में उनके योगदान के कारण उन्हें लोकप्रिय रूप से “अभिनव पाणिनी” कहा जाता है।



आचार्य रामयत्न शुक्ल के बारे में:

* आचार्य रामयत्न शुक्ल, जिनका जन्म 15 जनवरी 1932 को भदोही जिले, उत्तर प्रदेश (यूपी) में हुआ था, संस्कृत व्याकरण के विद्वान थे और उन्होंने प्राचीन और संस्कृत ग्रंथों के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

* वे यूपी नागकूप शास्त्रथ समिति और सनातन संस्कृति संवर्धन परिषद के संस्थापक थे, जो संस्कृत भाषा और समाज के नैतिक मूल्यों के उत्थान में लगे हुए हैं

* उन्होंने संपूर्ण नंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, यूपी में विभागाध्यक्ष (एचओडी) और डीन के रूप में भी कार्य किया।

* उन्होंने वाराणसी (यूपी) में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू), पुडुचेरी में फ्रेंच इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजी, नई दिल्ली में लाल बहादुर शास्त्री विश्वविद्यालय जैसे भारत के प्रमुख संस्थानों के प्रिंसिपल, लेक्चरर, रीडर और विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।

पुरस्कार:

उन्हें केशव पुरस्कार, वाचस्पति पुरस्कार और विश्वभारती पुरस्कार सहित 25 से अधिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। उन्हें “महामहोपाध्याय” की उपाधि से भी सम्मानित किया गया है। सामाजिक कार्यों में उनके अपार योगदान के लिए उन्हें 2021 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने कई किताबें और शोध पत्र लिखे हैं। उनके प्रमुख प्रकाशनों में से एक “व्याकरण दर्शन सृष्टि प्राक्रिया विवाद” है।


विषय सूची

१ जन्म तथा शिक्षा
२ निशुल्क शिक्षा
३ टीका टिप्पणी और संदर्भ
४ संबंधित लेख

जन्म तथा शिक्षा

सन 1932 में वाराणसी, उत्तर प्रदेश में जन्में रामयत्न शुक्ल की बचपन से ही संस्कृत में विशेष रुचि थी। उनके पिता रामनिरंजन शुक्ल भी संस्कृत के विद्वान थे। आचार्य रामयत्न शुक्ल ने धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज और स्वामी चैतन्य भारती से वेदांतशास्त्र, पंडित प्रवर हरिराम शुक्ल से मीमांसाशास्त्र और पंडित रामचंद्र शास्त्री से दर्शनशास्त्र, योग आदि की शिक्षा ली थी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर से पहले उन्होंने 'संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय' में व्याकरण विभागाध्यक्ष के पद से कॅरियर की शुरुआत की थी। उसके बाद शुक्ल गोयनका संस्कृत विद्यालय में प्राचार्य के पद पर नियुक्त हुए और फिर बीएचयू में सेवाएं दी।

90 साल की उम्र में भी विद्यार्थियों को दे रहे थे संस्कृत की शिक्षा

आचार्य रामयत्न शुक्ल शंकुलधारा तालाब के पास (खोजवां) स्थित अपने आवास पर 90 वर्ष की आयु में भी संस्कृत जिज्ञासुओं व विद्यार्थियों से घिरे रहते थे. आचार्य शुक्ल को पिछले वर्ष पद्मश्री अलंकार से सम्मानित किया गया था

छात्रों को दे रहे थे निशुल्क शिक्षा


आचार्य रामयत्न शुक्ल युवाओं में संस्कृत के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए दिन-रात मेहनत करते थे. युवाओं को संस्कृत से जोड़ने के लिए वो उन्हें निशुल्क शिक्षा भी देते थे. उन्होंने अष्टाध्यायी की वीडियो रिकार्डिंग तैयार करवायी थी, जिसके माध्यम से संस्कृत को सहज रूप में नयी पीढ़ी को बताने का काम किया.

पिता की इच्छा पूरी करने के लिए सीखी संस्कृत


आचार्य प्रो. शुक्ल जब पाचवीं कक्षा के छात्र थे उस समय उनकी गणित और अंग्रेजी में अच्छी पकड़ थी। इनमें ऊंचे अंक देखते हुए विद्यालय के प्रधानाचार्य आधुनिक शिक्षा दिलाना चाहते थे, लेकिन उनके पिता ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने का निर्णय लिया। उनके पिता स्वयं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। पिता की आस्तिकता और संस्कृत के प्रति प्रगाढ़ प्रेम व श्रद्धा ने उन्हें देववाणी की ओर मोड़ दिया। उन दिनों कक्षा पांच से ही संस्कृत शिक्षा दी जाती थी। इसके बाद संस्कृत पाठशाला से मध्यमा कर वे वाराणसी के धर्म संघ शिक्षा मंडल आए और यहां रह कर प्रथम गुरु रामयश त्रिपाठी के सानिध्य में आगे की शिक्षा प्राप्त की। प्रो. शुक्ल ने संपूर्णानंद (वाराणसेय) संस्कृत विश्वविद्यालय से आचार्य व पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और सर्वप्रथम संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय से अध्यापन-कार्य आरंभ किया। प्रो. शुक्ल गोयनका संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य भी रहे। इसके अलावा एक वर्ष तक बीएचयू में वेदांत विषय के अध्यापक रहे।

30 वर्षो से लगातार काशी विद्वत परिषद के हैं अध्यक्ष


आचार्य रामयत्न शुक्ल ऐसे विरल विद्वान हैं जो कि देश की जानी-मानी विद्वत संस्था काशी विद्वत परिषद के लगातार तीस वर्षो से अध्यक्ष हैं। उन्होंने यह पद दर्शन-केशरी प्रो. केदारनाथ त्रिपाठी से ग्रहण किया था। यही नहीं अपने ज्ञान से बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त कर चुके हैं। 1962 में प्रयाग कुंभ के समय माध्व सम्प्रदाय के लोगों ने चुनौती दी थी कि व्याकरण, न्याय और वेदांत का कोई भी विद्वान आकर शास्त्रार्थ कर सकता है। उनसे शास्त्रार्थ के लिए काशी से कोई भी विद्वान जाने को तैयार नहीं हो रहा था। अपने गुरु आचार्य रामप्रसाद त्रिपाठी के आदेश पर प्रो. शुक्ल वहां गए। उधर से बोलने वाले तीन विद्वान थे और इधर वे अकेले थे। जिसके बाद उन्होंने शास्त्रार्थ में काशी का डंका बजाया और विजयी हुए।

युवाओं को संस्कृत के प्रति प्रेरित करना ही है उद्देश्य


आचार्य रामयत्न शुक्ल युवाओं को संस्कृत के प्रति प्रेरित करना चाहते हैं। यही उनका मुख्य उद्देश्य है। वो कहते हैं कि आज संस्कृत से ही उन्हें बहुत कुछ मिला है। संस्कृत में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। भारत को विश्व गुरु बनाने में संस्कृत का योगदान रहेगा। इसलिए उनका उद्देश्य यही रहता है कि भारतीय युवा अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ सकें।

पद्मश्री सहित कई सम्मान से हो चुके हैं सम्मानित


आचार्य रामयत्न शुक्ल का संस्कृत के प्रति प्रेम किसी से छिपा नहीं है। यही कारण है कि वो आज कई सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं। आचार्य रामयत्न शुक्ल को वर्ष 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार, वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से केशव पुरस्कार, वर्ष 2005 में महामहोपाध्याय सहित अनेक पुरस्कार व सम्मान मिल चुके हैं। उनके नाम से दर्जनों पुस्तकें , लेख व शोध पत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। यही नहीं भारत सरकार ने शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी सम्मानित किया है।

निःशुल्क संस्कृत की शिक्षा देकर भारतीय संस्कृति को जींवत रखने वाले आचार्य रामयत्न शुक्ल आज सही मायने में सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत (Inspiration) है। उन्होंने अपनी कला और शिक्षा के दम पर अपनी सफलता की कहानी (Success Story) लिखी है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

केंद्रीय विद्यालय संगठन (KVS) क्या है?/

  केन्द्रीय  विद्यालय संगठन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन एक ऐसा संगठन है जो देश के सभी केंद्रीय विद्यालयों के कामकाज को देखता है। मानव संसाधन म...